मैंने कुछ दिनों पहले प्रेमचंद जी की कहानी में एक लाइन पढ़ी थी- "सिद्धांत के विषय में आत्मा का आदेश सर्वोपरि होता है।" उस दिन मैं खुद से पूछ रही थी आखिर सिद्धांत की परिभाषा क्या है मेरे लिए। तो मेरी खुद से कुछ इस तरह बात हुई-
किसी व्यक्ति के सिद्धांत वो विचार होते हैं जो किसी व्यक्ति के निर्णय को तार्किकता से भरे शब्द देते हैं। सिद्धांतों में जड़ता की कोई जगह नहीं होती है। इसके जरा से भी अंश के साथ लिए निर्णय हठ या जिद की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। पर अगर निर्णय में इच्छा का अंश हो तो? यकीनन वो सिद्धांत नहीं हो सकते। इच्छाएँ हमें ठहरने नहीं देती। स्वार्थ या सहूलियत का सिद्धांतों से लेना देना नहीं होता। तो क्या सिद्धांत को आत्मा के आदेश से जोड़ा जा सकता है? आत्मा का अर्थ क्या है? मैं गंभीर तर्क तो नहीं दे सकती पर मेरे विषय में आत्मा वो है, जो मुझे मेरे कर्मों और विचारों के सही या गलत होने का अहसास करवाए। ये अहसास तभी संभव है जब व्यक्ति में स्वयं के विषय में ईमानदार रहने का सामर्थ्य हो। आसान शब्दों में मैं बोल सकती हूँ की आत्मा तर्कों और नैतिकता का सबसे बेहतरीन संगम है। क्या आत्मा की आवाज हमेशा सही होती है? शायद नहीं, लेकिन इतना कहा जा सकता है की बुद्धि की समझ और नैतिकता से जुड़ी धारणाओं को आत्मा की सीमा माना जाये तो आत्मा अपने सामर्थ्य के अनुरूप सही ही होती है। उसके शब्द कटू हो सकते हैं पर वो उस व्यक्ति से सत्य नहीं छुपा सकती जो उसका मालिक है। अगर सिद्धांतों को जीवन का मार्गदर्शक या निर्देशक कहा जाये तो आत्मा से बेहतर उद्गम स्थल और क्या होगा! किसी भी व्यक्ति की पहचान बनाते हैं उसके कर्म और निर्णय, जिनकी कसौटी होती है व्यक्ति के सिद्धांत। सिद्धांतों की उपस्थिति हर एक परिस्थिति में संतुष्टि और महानता से युक्त होती है, क्योंकि तब उन कर्मों और निर्णयों में परिणामों का पछतावा नहीं रह जाता है।
यहाँ सार ये निकला कि सिद्धांत वो नियम नहीं हैं जो हर परिस्थिति में मानने ही होतें हैं, सिद्धांत वो अदृश्य शक्ति हैं जो व्यक्ति अस्तित्व को एक सटीक परिभाषा देती है। सिद्धांतों की अनुपस्थिति में भी आनंद और सुख संभव है परन्तु संतोष नहीं। मैं संतोष के साथ जाना चाहूंगी, वो चिरस्थायी होता है और व्यक्ति के अंत तक उसका साथ देता है।
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